[सत्य घटना पर आधारित कहानी]
अपने आज को सुकून देने के लिए कामों को कल पर टालने की आदत सी हो गयी थी । समय पर न करने के कारण छोटे-छोटे काम भी जब तक पहाड़ जैसे न लगने लगें और घर वाले 4 ताना न मार दें तब तक मजाल है कि कामों को हाथ भी लगाऊं । उस दिन भी कुछ यही हाल था । मकर संक्रांति पर ‘वृद्धाश्रम’ में दान देने के लिए निकाला सामान 7-8 दिन से मेरी ‘नज़रे-इनायत’ की राह तक रहा था । लेकिन मेरा आलस्य… “अरे रविवार को दे आऊंगा”… “कल पक्के से पहुँचा दूंगा”… इन आश्वासनों से त्रस्त हो आखिरकार मेरी ‘लक्ष्मी स्वरूपा’ धर्मपत्नी की आँखों में ‘काली’ का क्रोध उतर आया । अंगारों से दहकते उसके शब्दों का पहला वार ही मेरे बर्दाश्त से परे था । इससे पहले वो क्रोध मुझे भस्म कर देता, मैंने सामान को स्कूटर पर लटकाया और अपनी २ साल की बेटी के साथ पहुँच गया ‘वृद्धाश्रम’ ।

अंदर से तालाबंद ‘वृद्धाश्रम’ में 2-3 बार आवाज़ लगाने के बाद एक बहुत बूढी सी आंटी धीरे-धीरे चलती हुयी दरवाज़े के पास आयीं । टूटी-फूटी और सीमित कन्नड़ भाषा के ज्ञान के सहारे मैंने उन्हें सामान के बारे में बताया लेकिन शायद उन्हें कुछ समझ नहीं आया था । या फिर उनका ध्यान ही कहीं और था । उनकी आँखें एकटक हो मेरी बेटी ‘अविका’ पर टिकी हुयी थीं । मैं उन्हें टोकता इस से पहले ही पीछे से आई एक महिला ने दरवाजे का ताला खोल दिया । अविका को वहीं खड़ा कर मैं सामन अंदर रखने चला गया । वापस आया तो आंटी को अपलक अविका को निहारते हुए पाया । आँखों में झिलमिलाते आँसूं और लड़खड़ाती जुबाँ से कुछ बुदबुदाते हुए वो कितनी ही देर तक अविका की ‘बलाएं’ उतारती रही । कहते हैं न कि प्यार और अपनेपन को बयान करने के लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती । अविका ने आगे बढ़ दरवाज़े पर रखे आंटी के हाथ पर अपना हाथ रख दिया । भाव विह्वल हो आंटी के आँखों से झरते आँसूं गालों तक और चेहरे की खुशी उनकी दिल की गहराइयों तक बढ़ गयी थी । अविका का हाथ चूमते हुए वो हमें हाथ से रुकने का इशारा करते हुए ‘वृद्धाश्रम’ के अंदर चली गयी ।

रुकूँ या जाऊँ ? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था । अविका का हाथ पकड़ वापस चलने के लिए मुड़ा ही था कि लंगड़ाते क़दमों से चलती आंटी हमारी तरफ आती दिखी । पास आ उन्होंने साथ लाये बिस्कुट के पैकेट को अविका के हाथ में थमा दिया । वृद्धाश्रम के सीमित संसाधन में गुजारा करने वाली उन आंटी से यूँ कुछ लेना मुझे सही नहीं लगा । मेरे कहने पर अविका ने बिस्कुट का वो पैकेट वापस करने कि लिए आंटी की तरफ बढ़ा दिया । हाथ के इशारे से मना करते हुए वो अपनी जगह से थोडा पीछे हट गयीं । थोड़ी देर तक मुझे देखने के बाद अविका ने आगे बढ़ वो पैकेट उनके पैरों के पास रखा और भाग कर मेरे पीछे आ छुप गयी । नीचे रखे उस पैकेट को देख अब तक खुशी से झिलमिला रहे उनके चेहरे पर अचानक उदासी आ गयी । पैकेट को उठा उन्होंने फिर एक बार अविका की तरफ बढ़ा दिया ।

इस बार उनके अनकहे शब्दों को समझ मैंने वो पैकेट उनके हाथ से लिया और अविका को दे दिया । बिस्कुट दुबारा मिलने से जहां अविका खुश थी वहीं खुशी अब आंटी के चेहरे पर भी लौट आई थी । शायद अविका का मिलना जैसे बुढ़ापे और अकेलेपन की तपती धूप में उन्हें हल्की फुआरों की ठंडक दे गया । या अविका को देख उन्हें किसी अपने की याद आ गयी थी जो दिल के तो करीब था लेकिन अब उनके करीब नहीं । वजह का तो पता नहीं लेकिन ये छोटा सा वाक्या पूरे दिन मेरे दिमाग में घूमता रहा । वहाँ जाने से पहले मुझे भ्रम था कि मैं वृद्धाश्रम में कुछ देने जा रहा हूँ… कुछ दान कर रहा हूँ । लेकिन वास्तविकता में बिस्कुट के पैकेट में छिपे निश्छल प्यार और ढेर सारी दुआओं से उन्होंने मेरी बेटी को ही मालामाल कर दिया था ।
Heart touching story…… ❤
Kitni khoobsurti se Apne jazbaaton ki shabdon me piro Diya hai …. Kamaal hai
Saurabh bhai.. tussi kamaal kitta hai.. !!!