रोज की तरह मैं अपने घर के बाहर सुबह- सुबह अपना पुराना स्कूटर साफ़ कर रहा था । नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद अपने जवानी के दिनों के इस सबसे भरोसेमंद साथी को चमकाना मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग था । सर्फ़ से रगड़ने के बाद पानी की बाल्टी लेने जा ही रहा था कि तरुण बदहवासी में भागता हुआ आता दिखाई दिया । उखड़ती हुयी साँसों के साथ उसने बोला “ राजनारायण दादा…… भैया…. राजनारायण दादा नहीं रहे… अभी थोड़ी देर पहले उनका देहांत हो गया ।“ तरुण की कही ये बात मेरे कानों तक जरूर पहुंची लेकिन मेरे दिमाग ने इसे मानने से जैसे मना कर दिया । “क्या बकवास कर रहा है । रात को ही बात हुयी थी दादा से । और तू…” मेरी बात बीच में ही काटते हुए तरुण बोला “शायद heart attack हुआ है । आप पहुँच रहे हो न?” मैंने गर्दन हाँ में हिला जरूर दी थी लेकिन मेरे पैर मानो जमीन से चिपक गए थे । राजनारायण दादा मेरे लिए जीवन के वो स्तंभ थे जिसके सहारे मैं अपने जीवन की छोटी- बड़ी सभी समस्याओं का हल ढूंढता था । हर बार की तरह कल भी अपनी बात उनके साथ साझा करने पर दिल को सुकून मिल गया था । “ महेश… ये घर-गृहस्थी की परेशानियाँ सरगम के ही कुछ स्वर हैं । इनके बिना जीवन के संगीत की मधुरता पूरी तरह महसूस नहीं कर सकते । बार-बार इन्हें सोचने की बजाय अपना समय और ऊर्जा अपनी ख़ुशी के लिए और हो सके तो दूसरों की ख़ुशी में लगाओ । और वैसे भी न मालूम हमारी ज़िंदगी में अब और कितने दिन…” कल दादा की कही वो बात वाकई सच हो गयी । चेतनाशून्यता की स्थिति से बाहर निकालते हुए मैंने अपने अधधुले स्कूटर को जोर से किक मारी । रास्ते में रखा हुआ सर्फ़ का पानी मेरे पाँव की ठोकर से लुढ़क कर जमीन पर फैल गया । स्कूटर की गति के साथ दिल के खालीपन में यादों की गहराइयाँ तेजी से बढ़ रही थी ।

राजनारायण जी और मैं जयपुर की एक प्लास्टिक फैक्ट्री मैं एक साथ काम करते थे । यूँ तो राजनारायण जी उस फैक्ट्री मैं सहायक-मैनेजर थे किन्तु सब लोगों के लिए वे मैनेजर कम और सहायक ज्यादा थे । चाहते तो मालिक के करीबी होने के नाते और अपने पद का अनुचित फायदा उठा का राजनारायण जी बहुत पैसे कमा सकते थे किन्तु उनका सिद्धांत हमेशा लोगों का प्यार और सम्मान कमाना था । फैक्ट्री में छोटा हो या बड़ा सभी को वे उचित सम्मान, सहायता और राय देते थे । यही कारण था कि वो “सर” या “मैनेजर साहब” न होकर सब लोगों के “राजनारायण दादा” थे । इसके अलावा भी उनका एक नाम था “रक्षा कवच” । दरअसल फैक्ट्री के मालिक हिमांशु केसरिया काम और अपने मुनाफे के प्रति जरा भी सहनशील नहीं थे । छोटी सी भूल या उनके आदेश में लापरवाही का अर्थ था कड़ी फटकार या नौकरी से छुट्टी । ऐसी कितनी ही परिस्थितियों में राजनारायण जी ने अपनी सूझबूझ और वक्चातुर्यता से लोगों को मालिक से बचाया था । फैक्ट्री के बाहर भी अपने सामाजिक कर्तव्यों के प्रति वे हमेशा तत्पर रहते थे । गरीब बच्चों की फीस, निःशुल्क ट्यूशन या मुश्किल परिस्थितियों में बिना ब्याज के उधार । अपनी सीमित तनख्वाह और पूरे परिवार की जिम्मेदारी के बावजूद ऐसे कितने ही परोपकार थे जिनकी जानकारी शायद उनके परिवार को भी नहीं थी । अपनी गाढ़ी कमाई को लोगों की सहायता में खर्च करता देख एक बार मैंने राजनारायण जी को टोका भी था “दादा…थोड़ा अपने और परिवार के बारे में भी सोचो । यूँ इधर-उधर आप इन लोगों पर पैसे लुटा रहे हो, आपको क्या लगता है कि वे आपके पैसे वापस कर पायेंगे? अपने भविष्य के लिए पैसों को सही जगह निवेश करो दादा ।” मेरी बात पर दादा हँस दिए थे “ऊपर वाले की दया से परिवार में किसी चीज की कोई कमी नहीं महेश । जहां तक रही भविष्य की बात तो उसे किसने देखा है? हाँ लेकिन ये जरूर है कि इन पैसों की मेरे भविष्य से ज्यादा जरूरत आज इन लोगों के वर्तमान को है । और ये किसने बोला कि मैं पैसा लुटा रहा हूँ । यह भी मेरा एक निवेश है । इन सब लोगों के स्वस्थ्य और मुस्कुराहट पर किया निवेश । इसका ब्याज जब बाद में मुझे मिलेगा तो तू देखता रह जाएगा I” दादा के जीवन का ये मूलमंत्र ही वो कारण था कि सेवानिवृत्ति के समय फैक्ट्री की रस्मी पार्टी के बाद सभी कार्मिक और अनेक जानने वाले उन्हें गाजे-बाजे के साथ उनके घर तक छोड़ने आये थे । रास्ते भर दादा की जय-जयकार के नारे लग रहे थे ।
डबडबाती आँखों के साथ यादों में खोये हुए मैंने स्कूटर राजनारायण जी के घर के सामने रोका । आस पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए थे । राजनारायण जी का पार्थिव शरीर घर के आँगन में रखा गया था । हमेशा मुस्कुराते हुए एक जीवंत व्यक्तित्व को इस तरह बेजान शरीर में देखना शायद मेरे जीवन का सबसे मुश्किल क्षण था । बिलखते हुए मन के साथ मैंने राजनारायण जी के चरण छुए और एक कोने में बैठ गया । मेरे मन के आँसूं आँखों तक आते-आते थम गए थे । शायद कुछ विछोह इतने गहरे होते हैं की आँसूं भी उन्हें व्यक्त नहीं कर सकते । खबर फैलने के साथ ही फैक्ट्री के कर्मचारी, इलाके से हर उम्र और जाति वर्ग के लोग अपने “दादा” को नम आँखों से श्रधांजलि देने उमड़ पड़े । दादा को नहला कर उनका मनपसंद कुर्ता पहनाया गया था । माथे पर तिलक और हवा में हिलते उनके चांदी जैसे चमकते बाल । दिल को जाने क्यूँ बार-बार ऐसा लग रहा था कि अभी उठ कर बोल पड़ेंगे “महेश बाबू…चाय पीयोगे ? मेरी स्पेशल अदरक तुलसी वाली चाय…” काश दादा ये सच हो जाता । आपके हाथ की चाय और आपकी बातें बहुत याद आएँगी दादा । कितने ही लोगों के जीवन को सही दिशा देने वाले के जीवन की आखिरी यात्रा की सारी तैयारी हो चुकी थीं । दादा के चारों और परिक्रमा कर उन्हें ले जाने ही वाले थे कि भीड़ में से एक 25-30 वर्षीय युवक निकल राजनारायण जी के चरणों के पास बैठ कर फूट फूट कर रोने लगा । भीड़ में सुगबुगाहट शुरू हो गयी । सार्थक वाजपेयी… वर्तमान समय का प्रसिद्ध लेखक । इतनी छोटी उम्र में ही उसकी लिखी किताबें और लेख न केवल यहाँ बल्कि पूरे विश्व में सराहे जा रहे थे । लेकिन वो यहाँ क्या कर रहा था? सबके मन में फैली इस जिज्ञासा के बीच पता चला कि सार्थक, फैक्ट्री के एक मजदूर का बेटा है । उनका सालों पहले दुर्घटनावश देहांत हो गया था । राजनारायण जी ने उस समय न केवल मालिक को मनाकर उसकी माँ को नौकरी दिलवाई बल्कि उसे पढने के लिए समय-समय पर आर्थिक सहायता और मार्गदर्शन भी दिया था । लेकिन आज तक दादा ने ये बात किसी को नहीं बताई थी । सार्थक ने जेब में रखी हुयी अपनी कलम को राजनारायण जी के चरणों के पास रख रख दिया और उनकी अर्थी को कंधा देने खड़ा हो गया ।

राजनारायण जी ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऐसे न जाने कितने ही दिलों को छुआ था । हर एक के पास दादा के साथ जुड़े किस्से थे और इन्हीं यादों की दौलत को लोग एक दूसरे से साझा कर रहे थे । वो किस्से जिसमें उनके मुश्किल दिनों और जीवन के संघर्ष से उबारते हुए एक सच्चे हीरो की तरह दादा ने कहानी को HAPPY ENDING तक पहुँचाया । राजनारायण दादा ने सबके जीवन पर एक गहरी लेकिन सुखद छाप छोड़ी हुयी थी । बाहर खड़ी हुयी भीड़ और सार्थक की सांकेतिक श्रधांजलि देख मुझे समझ में आ गया कि राजनारायण जी का “असली निवेश” बैंक की FD, जमीन और जायदाद तक सीमित नहीं था बल्कि वह तो लोगों के दिलों के अन्दर तक समाया हुआ था । दादा आप सही थे । आज वाकई मैं हैरान हूँ । उन्होंने जो निवेश किया था उसके ब्याज के रूप में न सिर्फ लोगों के जीवन में नयी आशा और ख़ुशी का आगमन हुआ बल्कि जाते-जाते “दादा” को मिली दुआएं और अश्रुपूरित नेत्रों से विदाई ।
जहां तक रही भविष्य की बात तो उसे किसने देखा है? हाँ लेकिन ये जरूर है कि इन पैसों की मेरे भविष्य से ज्यादा जरूरत आज इन लोगों के वर्तमान को है । और ये किसने बोला कि मैं पैसा लुटा रहा हूँ । यह भी मेरा एक निवेश है । इन सब लोगों के स्वस्थ्य और मुस्कुराहट पर किया निवेश ।
Saurabh Khoobsurat lagi ye line ! Amazing, keep it up.