जंग

“सनिल… Why don’t you go and have something? पौने छः बज रहे हैं । तुमने आज लंच भी नहीं किया । Don’t worry, I will take care here.” साथ चलते डॉक्टर भास्कर ने यह कहते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखा और फिर आगे बढ़ लिए । “ It’s OK sir. Will take a break after finishing this round.” जवाब देते हुए मैं भी तेज़ क़दमों से उनके पीछे हो लिया । हमने बाकी बचे मरीजों के हाल चाल लेने के बाद पास के हॉल में बनाये दूसरे स्पेशल वार्ड की तैयारियों का मुआयना किया । वहीं खड़े-खड़े एक अनौपचारिक मीटिंग में आगे की संभावित स्थिति और रणनीति पर चर्चा की । हर तरफ से इत्मीनान कर लेने के बाद मैंने चेंजिंग रूम में आ PPE सूट, मास्क और Gloves को कूड़ेदान में डाल दिया । हाथ-पाँव साबुन से धो अपने केबिन की तरफ हो लिया । पिछले 13 दिनों से दिन-रात, भूख-प्यास किसी चीज का कुछ होश ही नहीं था । अस्पताल के स्पेशल आइसोलेशन वार्ड में मेरी ड्यूटी लगी हुयी थी । मरीज तेजी से बढ़ते जा रहे थे और साथ ही बढ़ता जा रहा था पूरी दुनिया पर अट्ठाहस करती इस बीमारी का खौफ । सारा मेडिकल स्टाफ सीमित संसाधनों के साथ खुद वायरस की चपेट में आने के डर के बीच जिंदगियां बचाने की जद्दोजेहद में लगा हुआ था । ऎसी आपदा…किसी ने कल्पना भी नहीं की थी ।

अपने केबिन में पहुँच कुर्सी पर थोड़ी देर के लिए आँख बंद कर बैठ गया । नींद भरी बोझिल आँखें और थकान से शरीर टूट रहा था । खाना खाने का मन नहीं कर रहा था । मेरे केबिन की खिड़की के सामने लटके टी.वी. पर समाचार चल रहे थे । ध्यान बंटाने के लिए सोचा थोड़ी देर यही देख लेता हूँ । लेकिन वहाँ पर भी वही सब नकारात्मक खबरें चल रही थीं…वायरस का आतंक… लाशों का ढेर… भुखमरी और बेरोजगारी । टी.वी. से कुछ सुकून न मिलता देख हाथ sanitize कर टेबल के कोने में पड़े टिफिन को अपनी तरफ खींच लिया । तीन चपाती, अचार और पालक-आलू…टिफिन में रखी पालक आलू की सब्जी ने मुझे इला के साथ बिताए उन दिनों की याद दिला दी । चम्मच में थोड़ी सी सब्जी ले मैंने मुँह में डाल ली । यक्क…सामने रखी बोतल का ढक्कन खोल दो-तीन घूँट पानी तेज़ी से मैंने अपने मुँह में उढ़ेल लिया । मुँह का स्वाद और यादों की मिठास दोनों बिगड़ गए थे । वैसे तो शानू दीदी ठीक-ठाक खाना बना लेती थी लेकिन शायद उनकी बनी इस सब्जी से आज कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर गया था । क्या करूँ… पालक-आलू देख इला के हाथों का वो स्वाद जुबाँ पर जो आ गया था ।     

3.5 साल पहले मेरी और इला की शादी हुयी थी । सरकारी अस्पताल में नौकरी लगे हुए मुझे कुछ 2 साल हुए थे । उस समय मैं शादी-ब्याह के दिखावे और उसमें होने वाली फ़िज़ूलखर्ची के सख्त खिलाफ था । सोचा करता था कि अपनी शादी में ये सब नहीं करूँगा । लेकिन मैं यह भूल गया था कि शादी तो दो लोगों की होती है…दो परिवारों की होती है… दो सोच की होती है । और जरूरी नहीं कि वो दूसरी सोच भी मेरी सोच से मेल खाए ।  “सनिल जी…इला मेरी एकलोती लड़की है । शादी को लेकर उसने और हमने कई अरमान संजो कर रखे थे । इसलिए आप ये सब मत सोचिये । हम सब देख लेंगे । आप तो चाय लीजिए” चाय का कप मेरी और बढ़ा इला के पापा मुस्कुरा दिए । मेरी बात के विनम्रतापूर्वक यूँ ठुकराए जाने के बाद साधारण ढंग से शादी करने मेरी कोशिशों पर पूर्ण विराम लग गया । पूरे तामझाम और रीति-रिवाजों से इला को ब्याहने के बाद मैंने उसे अपने घर और जीवन का हिस्सा बना लिया । जो भी हो लेकिन सच कहूँ तो इला के आने के बाद जिंदगी में काफी सारे सुखद परिवर्तन आ गए थे । अब मेरे पास भी घर जल्दी वापस आने का एक कारण हो गया था । दरवाज़ा खोल जब इला मुस्कुराते हुए मुझे देखती थी तो जैसे सारी थकान ही उतर जाती थी । Hospital quarters के उस घर में इला की वो मुस्कान ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी थी । उसका साथ मानो एक मधुर सरगम थी जिसके सुर हमेशा मेरे लबों पर छाए रहते थे । बचपन से जी तोड़ मेहनत कर अपना एक मुकाम बनाने… डॉक्टर बनने की कशमकश के बीच समय कहाँ उड़ गया था पता ही नहीं चला । लेकिन अब भागती हुयी इस जिंदगी को दो पल ठहर उसे जीने का मन करने लगा था ।

 इला के साथ मैंने जीवन को नए रंगों और नए सपनों से सजाना शुरू कर दिया था । साथ घूमना-फिरना, सरप्राइज़ गिफ्ट्स और हर वो चीज जो इला के चेहरे पर मुस्कान बिखेर देती थी । मेरी हमेशा यही कोशिश रहती थी कि उसे किसी चीज के लिए अपना मन न मारना पड़े । वैसे अपनी बात मनवाने का तरीका भी उसे खूब आता था । पालक आलू की सब्जी के साथ परोसी उसकी हर ख्वाहिश पूरी हो ही जाया करती थी । इन सब में खर्चे अचानक से काफी बढ़ गए थे लेकिन मैं एडजस्ट करता रहा । सोचा नयी उमंगें हैं, नया उत्साह है । धीरे धीरे सब संतुलित हो जाएगा । मेरी ओर से यह सब भविष्य के मजबूत और स्वस्थ्य रिश्ते के लिए वर्तमान में किया निवेश था । इन सब के बावजूद कहीं न कहीं मेरा प्यार और कोशिशें कम पड़ती जा रही थीं । इला की जरूरतें मेरी आमदनी की चादर से बाहर निकल पैर पसारने लगी थी । न चाहते हुए भी एक-दो बार मुझे इला को मना करना पड़ा । उस समय वो थोड़ी उदास जरूर हो गयी थी पर यूँ ‘मना’ कहने का हमारे प्यार और रिश्ते पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा था । लेकिन धीरे-धीरे उसकी लंबी होती जरूरतों की लिस्ट और मेरे उसको समझाने या न कहने के कारण उसकी उदासी ने अब नाराजगी की शक्ल लेना इख्तियार कर दिया ।

“ Why don’t you start some job? you will feel good और तुम्हारा वक्त भी कट जाएगा” बातों बातों में कही मेरी इस बात ने उस दिन तूफ़ान ला दिया । अंदर से भरी बैठी इला मानो फट पड़ी “वक्त कट जाएगा मतलब? घर पर मैं खाली नहीं बैठी रहती हूँ । 50 काम होते हैं । और फिर मैं बाहर जा कर किसी की नौकरी क्यूँ बजाऊँ । सीधे सीधे ये क्यूँ नहीं कहते कि तुम मेरी जरूरतें भी पूरी नहीं कर सकते और बीवी के सपने पूरे करने के लिए भी तुम्हें उसकी कमाई चाहिए । अरे इन सब की जगह तुम खुद कमाई का कोई और जरिया क्यूँ नहीं देखते । डॉक्टर हो और वो भी सरकारी अस्पताल में… तुम्हारे बारे में यही सुन कर मैंने तुम से शादी करी थी । सोचा था कि समाज में इज्ज़त भी रहेगी और रूपये पैसों की कोई किल्लत भी नहीं । अरे तुम्हारे नीचे काम करने वाले वार्ड बॉय तक ऊपर की कमाई करते हैं । तुम्हारे लिए तो ऎसी आमदनी के हज़ार रास्ते खुले हैं  । लेकिन तुम्हें यह सब समझ आता कहाँ है? अस्पताल में धेला अलग से नहीं कमाते उसके ऊपर शाम को घर आने वाले तुम्हारे ये मरीज जो कभी आलू दे जाते हैं तो कभी  घी का डिब्बा लेकिन फीस कोई नहीं देता । अगर मसीहा ही बनना था तो शादी क्यूँ करी?”

“ ऊपर की आमदनी “… इला पहले भी कई बार इस बात का जिक्र कर चुकी थी लेकिन मैं गर्दन हिला हर बार बात को रफा दफा कर देता था । मरीजों की नम आँखों और बुदबुदाते होठों से दी गयी दुआओं की कीमत पैसों की जुबान समझने वाली इला को मैं नहीं समझा सकता था । उसे तो बस पैसा दिखता था पर मुझे दिखती थीं अस्पताल की लंबी लंबी लाइनों अपनी बारी का इन्तेज़ार करती बेबस आँखें । गरीबी और बीमारी से एक साथ संघर्ष करते वो मुरझाए चेहरे । मैंने पैसों की कमी के कारण दवा और इलाज के बिना तड़पते लोगों को देखा था । पैसों की कीमत किसी भी सूरते हाल में ज़िंदगी से बड़ी नहीं हो सकती । आये दिन मेरे पास प्राइवेट हॉस्पिटल, दवा कम्पनी के एम. आर. और डायग्नोस्टिक लैब के लोग कमीशन पर काम करने का प्रस्ताव ले आते रहते थे । महँगी दवाइयाँ और टेस्ट लिख पैसा मैं भी कमा सकता था । लेकिन मुझे अपनी सैलरी से ही संतुष्ठी थी । डाक्टर पर भगवान जैसा भरोसा रखने वाले मरीज का पेट काट कमाए पैसे मुझे एक कतरा मुस्कान भी नहीं दे सकते थे । दूसरी तरफ ये भी सच था कि इला के चेहरे की मुस्कुराहट के बिना मेरे जीवन की परिभाषा अधूरी थी । मैं न तो अपने उसूलों से मुँह मोड़ सकता था और न इला को यूँ कुढ़ते हुए देख सकता था । इस मुश्किल परिस्थिति में संतुलन बनाये रखना मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा था ।  

सारी कोशिशों के बावजूद इला की पैसों के लिए सनक बढ़ती ही गयी । मैंने भी अक्सर नाईट ड्यूटी लेना शुरू कर दिया । घर जाने पर न अब वो इला की मुस्कान दिखती थी और न ही सुकून का माहौल । पहले तो मैं भी कभी-कभी उसकी बातों पर झिल्ला जाता था लेकिन उसकी हर कड़वी बात को अब मौन रह मैंने पीना शुरू कर दिया था । इला के बनाए आलू-पालक और हमारे रिश्ते दोनों में ही कसैलापन बढ़ता जा रहा था । रिश्ते को बचाने की हर कोशिश आखिरकार उस दिन ढह ही गयीं “मैं क्यूँ अपनी आवाज़ नीची करूँ? अगर कोई सुनता है तो सुनने दो । I am done with you. पापा ने अपना अस्पताल बनाने के लिए कहा लेकिन नहीं…मुंबई के इतने बड़े अस्पताल से तुम्हारे पास जॉब आई लेकिन नहीं…सरकारी नौकरी की उस सैलरी के आगे जैसे तुम्हें बढ़ना ही नहीं । इन फटेहाल मरीजों की तीमारदारी में ही तुम्हें ख़ुशी मिलती है । तुम्हारा ये समाज कल्याण किसी किताबी दुनिया का आदर्श है । तुम्हें इस में इज्ज़त दिखाई देती होगी लेकिन खाली जेब की इस दुनिया में कोई इज्ज़त नहीं । अपनी इक्षाओं का यूँ गला घोंट ऐसा परोपकार एक पागलपन है । तुम्हारा ये पागलपन मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकती । दम घुटता है मेरा अब यहाँ । मैं जा रही हूँ । ” चुभती हुयी बातें बोल इला अपना सूटकेस खींचती हुयी घर से बाहर निकल गई । अपनी बालकनी में खड़े मेरे सहयोगियों और उनके परिवार की हर आँख मुझे ही देख रही थी । अंदर तक छलनी करती वो आँखें मानो मुझ पर हँस रही थीं । आँखें झुका मैंने अंदर आ किवाड बंद कर ली । इला सही थी । अब मेरी कोई इज्ज़त नहीं बची थी ।

कोरोना वारियर्स के सम्मान में सरकार का बड़ा फैसला । इस लड़ाई में कोरोना से ग्रस्त हो जान गँवाने वाले डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ को मिलेगा शहीद का दर्जा । आश्रितों को मिलेगी 1 करोड़ रूपये की सहायता राशि” । सामने के टी.वी. पर चलती इस खबर ने मुझे अतीत की कड़वी यादों से निकाल वर्तमान में ला पटका । 1 करोड़ रूपये… इस दुनिया में इज्ज़त पाने के लिए 1 करोड़ रूपये तो इला के लिए काफी होंगे न । मेरे प्यार का मोल तो वैसे उसकी नज़रों में कोडियों के भाव निकला । उसे मनाकर वापस लाने की हर कोशिश के बदले मुझे उसकी विषबुझी बातें ही सुनने को मिली । मुझे उम्मीद थी कि कभी न कभी वो वापस जरूर आएगी । लेकिन वो न आई… हाँ उसकी तरफ से तलाक के कागज़ जरूर आ गए । मैं उसे तलाक़ नहीं दे सकता । मेरे लिए इला के बिना जीवन का कोई मतलब नहीं था । उसके बिना इस अधूरी ज़िंदगी को ख़त्म करने ख्याल कई बार आये । इला के बिना वैसे भी मैं मर मर कर ही जी रहा हूँ । इस से तो अच्छा है कि मैं कोरोना से ही मर जाऊं । उसके हिसाब से पति होने का जो फ़र्ज़ मैं जीते जी न निभा पाया वो मेरी मौत से मिले ये 1 करोड़ पूरी कर देंगे । शहीद की बीवी और 1 करोड़ रूपये । उसे वो सब मिल जाएगा जिसके लिए वो मुझे छोड़ कर गयी थी । हे भगवान… मैं अब फटने लगा हूँ । ये दवाब अब और सहन नहीं होता । अब नहीं जीना मुझे । हाँ… यूँ मरने पर वो मेरी लाश को देखने भी नहीं आएगी । शायद वो मेरी मौत पर एक आँसूं भी न बहाए लेकिन तलाक़ पर ख़त्म करने की जगह मेरे और हमारे रिश्ते के लिए यही अंत सही रहेगा ।

ऊपर वाले से मांगी इस दुआ में उस समय मैं स्वार्थी हो गया था । थोड़ी देर के लिए अपने मरीजों का दर्द, उनकी मौत से डरी आँखें, अपना कर्त्तव्य सब भूल गया था । मुझे बस अपना दर्द और उसे कम करती मौत दिखाई दे रही थी लेकिन फिर ख़याल आया थालियों और तालियों की गडगडाहट का । वो तालियाँ जो देशवाशियों ने हमारे सम्मान में बजाई थीं । वो थालियाँ जिनकी घनघनाहट कोरोना से इस जंग का शंखनाद थीं । ये जंग अभी खत्म नहीं हुयी है । एक-एक सांस के लिए संघर्ष करते मरीजों को हमारी जरूरत है । कोरोना के गहराते अँधेरे के बीच देशवासियों की उन उम्मीदों को हमारी जरूरत है । लड़ाई अभी बहुत लंबी चलेगी और हर योद्धा का लड़ाई के आखिरी मुकाम तक डटे रहना बहुत जरूरी है । ये जंग मेरे और इला से कहीं बड़ी थी । बीच लड़ाई में स्वार्थी बन यूँ शहादत की सोचना मेरी कायरता थी । थोड़ी देर के लिए कमजोर पड़ते मन को फिर मजबूत कर लिया । माना इला मेरी ज़िंदगी का एक बहुत अहम हिस्सा है लेकिन वो पूरी जिंदगी तो नहीं है । उसके अलावा भी मेरे जीवन में कई ओर दिशाएं हैं । हमारे रिश्ते को फिर जीवित करने की कोशिश मैं करता रहूँगा लेकिन उस दिन के इन्तेज़ार में मेरा आज मर नहीं सकता…मेरा कर्त्तव्य रुक नहीं सकता । दिल में न अब कोई पीड़ा थी और न अफ़सोस । बाहर से एम्बुलेंस की धीरे-धीरे तेज होती आवाज़ मुझे बुला रही थी । टिफिन को एक कोने में कर नयी ऊर्जा के साथ मैं अपनी युद्धभूमि की तरफ चल दिया ।

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3 Comments

  1. Avatar सादिक़

    शानदार,
    कोरोना से लड़ रहे हमारे डॉक्टरों को समर्पित इन शब्दों के लिए धन्यवाद

    1+

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