किचिन सेंटर

एक तो चक्रवाती बारिश के कारण ठंडा मौसम और ऊपर से शनिवार की सुबह… जैसे साक्षात् कुम्भकरण का आशीर्वाद । चद्दर तान कर सोने का पूरा माहौल बना हुआ था । घनघोर आलस्य में जकडा हुआ मैं अलार्म को मारपीट कर पहले ही चुप करवा चुका था । धीरे–धीरे जब बारिश के वो रिमझिम संगीत की लोरी कुछ धीमे जान पड़ने लगी तो कुलमुलाई आँखें खोल घडी पर ध्यान दिया । सुबह के 10.35 बज चुके थे । एक और बार चादर ओढ़ कर सोने की कोशिश के बीच पेट की कुलबुलाहट शुरू हो गयी थी । भूखे पेट की नारेबाजी के आगे घुटने टेक आखिरकार ब्रश कर के पहुँच गया किचिन में । लेकिन वहाँ तो मामला गंभीर था । एक तो शादी के बाद घर वाली ने सेहत के नाम पर मेरी जिंदगी से “मैगी नूडल्स” को जुदा कर दिया था । आपातकाल के उस सुपरहीरो की अनुपस्थिति आज मेरे पेट को काफी खल रही थी । उसके ऊपर घरवाली के मायके जाने का सबसे बड़ा झटका हमारे फ्रिज को लगा था । किसी जमाने में ना-ना प्रकार की चीज़ों से गुलज़ार रहने वाला वो आज रेगिस्तान की उस वीरानियत को बयाँ कर रहा था जहाँ कहीं-कहीं कुछ कंटीली झाडियों के अलावा कुछ नहीं दिखता ।  घर के अंदर कोई बात बनती न देख झक मारकर मैंने टी-शर्ट पहनी और निकल गया पेट पूजा के जुगाड़ में ।

इस बारिश के मौसम में कहीं दूर जाने का मन नहीं था । फिर याद आया वो 2 गली छोड़ नया खुला “किचिन सेंटर”, जिसके बारे में अमन ने बताया था । भूख जोरों से लगी थी तो सोचा चलो आज यही try किया जाए । एक छोटी सी दुकान के अंदर चूल्हा, सिलेंडर, कुछ बर्तन, मसाले के डिब्बे, बाहर रखी दो कुर्सियां और टेबल पर पानी की एक बोतल । कुल मिला के यही था “किचिन सेंटर” । ये हाल देख खाने लायक कुछ मिलने की उम्मीद मुझे कम ही थी । कहीं और जाने के बारे में अभी सोच ही रहा था कि दुकान के बाहर खड़े उस छोटे से लड़के ने कन्नड़ में कुछ पूछा जो मुझे समझ नहीं आया । “कन्नड़ गोत्तिल्ला”… कन्नड़ भाषा के नाम पर मुझे आती इस एक मात्र लाइन को मैंने उस पर भी चिपका दिया । शायद वो लड़का इसके लिए पहले से ही तैयार था ।

“भैय्या क्या खाता?” कुर्सी की तरफ बैठने का इशारा करते हुए उसने मुझ से पूछा ।

अगले कुछ पल वो मेरी तरफ देख रहा था और मेरी आँखें असमंजस में दुकान के अंदर उसके इस सवाल का जवाब ढूँढ रही थीं ।

आखिरकार उसने ही बोला “इडली, डोसा, लेमन राईस , बज्जी… आपको क्या होना भैय्या?… डोसा खाओ अच्छा होता ।” एक अच्छे salesman की तरह मेरे हाव-भाव पढ़ वो अपना सामान बेचने की पूरी कोशिश कर रहा था ।

एक डोसे की बोल कुर्सी अपनी ओर खिसका मैं बैठ गया । जाने क्यूँ उस लड़के के बारे में जानने की मुझे जिज्ञासा हो रही थी ।

बातचीत शुरू करने के लिए मैंने ही पूछा “तेरा नाम क्या है?”

“विष्णु…” मेरे हाथ में डोसे की प्लेट पकड़ाते हुए उसने कहा ।

“डोसा अच्छा है ।” विष्णु की तरफ मुस्कुराते हुए मैंने कहा । “अच्छा तेरा घर कहाँ पर है ? ”

उसने दुकान की तरफ इशारा किया “मैं और अम्मा अंदर सोते । घर तो गाँव में ।”

इसके बाद थोड़ी देर तक खामोशी बनी रही । विष्णु एक और ग्राहक के लिए इडली पैक कर रहा था । अपना डोसा खत्म कर मैंने आंटी से एक और डोसा बनाने के लिए बोल दिया ।

“अच्छा तुम बेंगलौर कब आये?” मेरी प्लेट में चटनी डालने आये विष्णु से मैंने पूछा

“फरवरी में । पहले बिल्डिंग में मजदूरी करी थी । २ महीने पहले ये डोसा दुकान स्टार्ट किया ।” जैसे एक लाइन में उसने अपनी 7-8 महीने की जिंदगी का सार बता दिया हो ।

“तो स्कूल नहीं जाता तू ?” विष्णु के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी थी ।

“स्कूल इल्ला भैय्या…अम्मा कारखाने में काम करने वालों का टिफिन बनाती । मैं टिफिन लेकर जाता, मार्केट जाता, बाकी काम करता ” चेहरे पर बिना शिकन लाये झूठी प्लेट साफ़ करते विष्णु ने बताया ।

इस  बात को सुन मेरा मन थोड़ा विचलित हो गया । “ सारे काम तू ही करता है । तेरे पापा कहाँ हैं?”

मेरे इस प्रश्न को सुन विष्णु अपनी माँ की तरफ देखने लगा । उनकी भावशून्य आँखें और चेहरे की कठोरता देख मैं समझ गया कि शायद मेरे सवाल ने उनकी जिंदगी के किसी दुखद पहलू को छू लिया । आगे और कुछ न बोल मैंने खाली प्लेट कुर्सी के साइड में रखी और डोसे के पैसे विष्णु की तरफ बढ़ा दिए ।

“डोसा अच्छा लगा न भैय्या… अपनी बिल्डिंग में बाकी लोगों को भी हमारी दुकान के बारे में बताना” खुले पैसे देते हुए विष्णु ने कहा । अपना सिर हाँ में हिलाते हुए मैं घर की तरफ चल दिया ।

 “भैय्या…” अभी कुछ दूर ही बढ़ा था कि पीछे से आवाज़ आयी । मैंने मुड़ कर देखा ।

“शाम को मैं पानी-पूरी की दुकान लगाता, आप आना ” हाथ हिलाते विष्णु की इस बात पर मैंने एक बड़ी मुस्कराहट के साथ थम्स-अप का इशारा उसकी ओर कर दिया ।   

रास्ते भर मेरे दिमाग में “किचिन सेंटर” घूमता रहा । वाह…विष्णु के चेहरे की मुस्कान और उसका उत्साह देख मुझे एक सकारात्मक ऊर्जा अनुभव हो रही थी । उनके पास संसाधन भले ही अत्यंत सीमित थे लेकिन उसका 200% उपयोग कर वो नयी-नयी संभावनाएं तलाश रहे थे । मुझे नहीं पता कि ये “किचिन सेंटर” और उनकी मेहनत कितनी रंग लाएगी ? इन मुश्किल परिस्थितियों से निकलने में उन्हें कितना वक्त लग जाएगा? लेकिन उन्हें देख ये जरूर लगा कि इन सब के बारे में सोचने का उनके पास अभी वक्त नहीं था । कहीं न कहीं अपनी मेहनत और प्रयास के इर्द गिर्द ही उन्होंने अपनी जिंदगी का तान बाना बुन रखा था । ये लोग वर्तमान में जी रहे थे, अतीत का गम भुला और भविष्य की चिंता छोड़ । जीवन की यह philosophy मैंने कितनी ही बार पढ़ी और सुनी जरूर थी लेकिन हमेशा से मुझे ये एक किताबी ज्ञान ही प्रतीत हुआ । लेकिन विष्णु और उसकी अनपद माँ ने तो इसे आत्मसात किया हुआ था । हाँ, कहीं न कहीं मेरा एक दिमाग कह रहा था कि ये सब तो उनकी मजबूरी है । और वैसे भी गरीबी और बेबसी में इंसान मजबूत बन ही जाता है । लेकिन ये मेरी पलायनवादी सोच थी । अपने आप को समझा-बुझा सत्य से दूर भागने वाली बात । थोड़ी देर के लिए इस नकारात्मकता को अलग कर के सोचा जाए तो अगर वो लोग ये सब कर सकते हैं तो मैं क्यूँ नहीं? सफलता और आत्मसंतोष के लिए सबसे जरूरी है प्रयास । जो भी मेरे पास है उसका पूर्ण उपयोग कर वर्तमान में किया गया एक ईमानदार प्रयास । आज मुझे अपने आस-पास ऐसे कितने ही संसाधन दिख रहे थे जिन्हें मैंने इकठ्ठा तो कर लिया पर अब ठीक से उपयोग भी नहीं करता । उल्टा नयी-नयी चीजें जोड़ने की चिंता में फंसा हुआ हूँ । ऐसे कितने ही अधूरे काम जिन्हें कोशिश करे बिना ही मान लिया कि नहीं कर पाउँगा । मैं जरूर कर पाऊंगा… कोशिश करूँगा तो क्यूँ नहीं कर पाऊंगा । आज इन सब को दुबारा शुरू करने का जोश उछालें मार रहा था । ईश्वर से यह प्रार्थना है कि विष्णु और उसके परिवार को सारी खुशियाँ मिलें और मेरा ये जोश ठंडा न पड़े ।     

4+

2 Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published.