मैं जिंदगी के उस दौर में हूँ जहाँ बीते दिनों को याद करने में ही मेरा अधिकतर समय गुजरता है । यूँ तो रोज गुजरी जिंदगी के कुछ ना कुछ पहलू आँखों के सामने आ ही जाते हैं पर आज उत्कंठा चरम सीमा पर है । शहर के शोरगुल और चकाचोंध से दूर, कहने के लिए मैं गाँव की मिट्टी और हवा के समीप हूँ । विकास की दौड और आधुनिकता के आंधी में आज के गाँव वो प्रेमचंद की कहानियों वाले परिद्रश्य से पूर्णतः अलग हैं । इस बात से मुझे वैसे कोई ऐतराज नहीं है । यहाँ के लोगों को भी आखिर बेहतर जीवर के लिए बदलाव को स्वीकार करना ही होगा परन्तु इन सब से इतर एक बात जिसको स्वीकार करने में मुझे कोई झिझक नहीं है । वो सत्य जो शायद बहुत सालों से मेरे साथ चल रहा था पर मैंने नहीं माना । आज मैं अपने आप को पूरी तरह से अकेला महसूस कर रहा हूँ । आम धारणा के हिसाब से अगर आंकलन किया जाए तो “सफलता” मेरे जीवन का पर्याय हों सकता है । धन-दौलत, क्षेत्र विशेष में ख्याति और अपने अपने जीवन में निरंतर उन्नति करते मेरे दोनों बेटे । किसी की इर्ष्या पाने के लिए यह सब काफी हों सकता है किन्तु आज इन सबके बावजूद भी मेरे चेहरे का सुकून और मुस्कान गायब है । मस्तिष्क में चल रहे अकेलेपन के अंधड से बचने के लिए मैं गाँव की सैर पर निकल आया हूँ । गाँवों की संकरी गलियों में तेजी से दौड़ती हुयी बाइक, बरगद का पेड़ काट कर बनाया गया वो भव्य “बरगद वाले कृष्ण जी” का मंदिर और रेलवे फाटक के ऊपर बना पुल जिसके कारण अब जाम नहीं लगता । ऐसे छोटे बड़े अनेक परिवर्तन दिखाई दे रहे थे परन्तु जाने क्यूँ मेरी सोच मुझे अतीत में ही खीचे ले जा रही थी ।
मध्यमवर्गीय परिवार की तीन संतानों में मैं सबसे छोटा था । ऐसा नहीं था की घर मैं आवश्यक संसाधनों की कभी कोई कमी थी । पिताजी की सारी कमाई और ऊर्जा अपने बच्चों की खुशी के लिए समर्पित थी । किन्तु अपने दोनों भाइयों से अलग मुझे सुख सुविधाओं और शाही जिंदगी की तमन्ना थी । जहाँ उनके कई दोस्त थे और वे गाँवों के सभी सुख दुःख में शामिल होते थे वहीं मैं अक्सर अकेला रहता था । नामिलनसार होने के इस ठप्पे से मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता था । पढाई में तेज और धुन का पक्का होने के कारण मैं सफलता की सीढियां तेज़ी से चढ़ता गया । जवानी के उस दौर मैं मानो मैंने एक दौड सी लगा रखी थी । विदेश में बैठकर डालर में कमाई कर रहे मेरे सहपाठियों से दौड, किसी ऊंची इमारत के शानदार घर में रह रहे मेरे बॉस से दौड और ऑफिस की पार्किंग में मेरी गाडी के पास में खड़ी उस बड़ी-शानदार गाडी से दौड । हर दौड में अव्वल आने का एक जूनून सा सवार था । इसी दौड के बीच में ही संगीता मेरे जीवन में आई । अपने प्यार और अपनेपन से उसने मुझे इस अंधी दौड में धीमा करने की काफी कोशिश की । शायद वो मुझे जीवन की उन असली खुशियों से मिलवाना चाहती थी जिनसे मैं अपरिचित था । किन्तु मैं धीमा नहीं हुआ । हाँ संगीता और मेरा परिवार जरूर पीछे छूटता चला गया । मेरी नज़रों से तो मैं उस समय एक अच्छा पति, पिता और बेटा था । बड़ा घर, गाड़ी, शहर के सबसे अछे स्कूल में दाखिला और खेतों के लिए नया ट्रेक्टर । ऐसी ही ना जाने कितनी सुख सुविधाएं मैं अपने परिवार को दी थी जिनकी चाहत मैं बचपन में रखता था । किन्तु इनके साथ वो एक चीज मैं अपने परिवार को ना दे पाया जिसका मोल इन सबसे अधिक है । ऐसी अनमोल चीज जिसकी कमी पिताजी ने परिवार को कभी नहीं होने दी । वो था समय, परिवार और अपनों के लिए समय । बेटा होने पर मैंने घर पर एक नौकरानी जरूर बढ़ा दी थी लेकिन रात को बच्चे को चुप कराने का प्रयत्न करती थकी हुयी संगीता से एक बार भी नहीं कहा कि “तुम सो जाओ, मैं इसे बाहर ले जाता हूँ” । मकर संक्रांति पर अपने दोस्तों को पतंग उड़ाते हुए देख रहे बेटे के कंधे पर हाथ रख कभी नहीं कहा कि “चलो आज हम दोनों मिल कर इन सब की पतंग काट देते हैं” । मैं तो अपने ऑफिस में ही व्यस्त था । ऑफिस ही जैसे घर बन गया था मेरे लिए । ऑफिस के मेरे साथी और उनके साथ अपनी सफलताओं का जश्न मनाने के बीच मुझे आभास ही नहीं हुआ कि कब वो तथाकथित दोस्त मुझे सीदी बना कर आगे बढ़ गए और मैं एकाकीपन के ऐसे अँधेरे में समाता चला गया जहाँ हाथ थमने वाला भी नज़र नहीं आ रहा था ।

मैं जीवन के उन उपजाऊ दिनों में सांसारिक सफलता के बीज बोता गया जिसकी ऊंची और लहलहाती फसल पर मुझे बहुत अभिमान था । किसान का बेटा होकर भी मैं यह ना समझ पाया कि केवल एक ही तरह कि फसल करते रहने से खेत की उर्वरकता कम हों जाती है । पारिवारिक प्यार और अपनेपन के बीजों के अभाव में जीवन बंजर होने लगा । बच्चे मेरे दिखाए रास्ते पर आगे बढ़कर आज अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त हैं कि मेरी सुध लेने का समय नहीं है । पूरी तरह ना सही लेकिन काफी हद तक आज मैं माँ और पिताजी के उदास चेहरों का मर्म समझ सकता हूँ । संगीता अपने आखरी समय तक मेरे जीवन में उस पेड़ की भांति रही जो बंजर जमीन के न्यूनतम साधनों के बावजूद भी डटे रहकर अपनी छाया से शीतलता देता है । आज अगर संगीता मेरे साथ होती तो कस कर उसे बाहों में जकड लेता । शायद ऐसे ही छोटे छोटे पल उसकी जिंदगी की परिभाषा बनाते थे । मैं ऐसे ही ख्यालों में खोया हुआ था कि कारखाने के हूटर की कर्कश आवाज़ ने अतीत से मेरा ध्यान भंग कर दिया । पुरानी बातों को याद करते करते वाकई मैं काफी दूर तक आ गया था । सामने केमिकल का वो नया कारखाना था जिसके लिए खेती की जमीनों को कई गुना दाम पर खरीदा गया था । जहाँ कभी हरी भरी फसल और घास के मैदान दिखा करते थे वहाँ कारखाने से निकले केमिकल ने बंजर जमीन का ऐसा टुकड़ा बना दिया है जिस से इंसान तो क्या जानवरों ने भी अपना मुख मोड लिया है । जाने क्यूँ मुझे अपना जीवन आज इसी जमीन जैसा दिखाई दे रहा है । बस फर्क इतना है कि मेरी जिंदगी पर केमिकल किसी और ने नहीं बल्कि मैंने खुद छिडका है ।
Super !
Sahi likha hai bhai