बचपन जिंदगी के सफर का सबसे खूबसूरत पड़ाव होता है । इस दौरान हम अक्सर कुछ ऐसी छोटी बड़ी बातें संजोते हैं जिनका जिक्र बचपन को फिर तारो ताज़ा कर चेहरे पर मुस्कान छोड़ जाता है । वे बातें जिन्हें सोचकर अपनी नासमझी और मासूमियत पर गुस्सा नहीं बल्कि हँसी आ जाती है । आज अपने बचपन के खजाने को टटोलते हुए मुझे ऐसी ही एक घटना याद आ गयी ।

उस समय ज्यादा बड़ा नहीं था मैं । उम्र कुछ सात-आठ साल के बीच रही होगी । किसी पूजा पाठ के सिलसिले में पापा पंडितजी से मिलने उनके घर जा रहे थे । घर के दरवाज़े से अभी बाहर निकले ही थे कि कुछ याद आने पर वापिस आ गए “सौरभ… तेरी ड्रेस भी लानी थी न…ऐसा कर तू भी साथ चल, वहीं से हाथ की हाथ तेरी ड्रेस भी दिलवा दूंगा ।” माना मुझे नयी ड्रेस लाने का इन्तेज़ार था पर अभी क्यूँ ? पापा के इस एक पंथ दो काज वाले आइडिया ने मेरा मूड खराब कर दिया । सोच रहा था कि पापा जल्दी से जाएँ ताकि टी. वी. पर “लाल बुझक्कड़” देख सकूं लेकिन… । पापा से डर भी लगता था तो मन मसोस कर चुपचाप स्कूटर पर बैठ गया ।
पंडितजी के घर मैं पहले भी कई बार आ चुका था । पतली सी गली में चिपके-चिपके मकानों के बीच वो नीला वाला मकान । घर के बाहर 1-2 गाय बंधी मिल ही जाती थीं । हुर्र-हुर्र कर गाय को एक कोने में हटा पापा ने स्कूटर को थोड़ा आगे रोक स्टैंड पर खड़ा कर दिया । अक्सर खाली से रहने वाले मकान के बाहर जूते चप्पलों का पहाड़ बना हुआ था । अंदर घुसते ही उलटे हाथ की तरफ बने हॉल में लोगों का जमघट लगा हुआ था । इतनी भीड़ से डर पापा का हाथ मैंने जोर से पकड़ लिया । थोड़ा उचक कर पापा ने हॉल के अंदर झाँका , फिर पहली मंजिल को जाती संकरी सीढियों से होते हुए पंडित जी के कमरे की तरफ चल दिए । मैं भी तेज कदमों से उनके पीछे हो लिया ।
पंडितजी को अगले हफ्ते की पूजा का निमंत्रण देने के बाद पापा ने उनसे नीचे की भीड़भाड़ का कारण पुछा । “ वो इटावा वाले बाबाजी आये हुए हैं । हनुमान जी के परमभक्त हैं । तीन दिन से शहर के कोने-कोने से लोग उनके दर्शन और अपनी समस्या का समाधान करवाने आ रहे हैं । ” पापा और पंडितजी के बीच की इन बातों में मेरी कोई रूचि नहीं थी । मेरा ध्यान तो सामने रखी प्लेट के बिस्कुटों पर था । दो बिस्कुट कुतरने के बाद अभी तीसरे को लेने की सोच ही रहा था लेकिन बाबाजी की तारीफों का पापा पर कुछ ऐसा असर हुआ कि जिस भीड़ से डरा मैं पापा से चिपका हुआ था ,पापा उसी भीड़ में मुझे घुसा कर ले गए ।

छोटा सा वो कमरा ठँसाठँस भरा हुआ था । हमारे आगे काफी लोग खड़े हुए थे । आगे का कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । उल्टे इस धक्कामुक्की के बीच मुझे लग रहा था कि कहीं मेरा सेंडविच ही न बन जाए । आखिरकार पापा की गोदी में आने के बाद सामने का दिखाई दिया । कमरे के बीचों-बीच मिठाई, फूल, फल और जलती हुयी अगरबत्तियों का धुंआ । वहीं रखी हनुमान जी की फोटो के सामने एक सफ़ेद दाढी वाले बाबा कुछ बुदबुदा रहे थे । सारी भीड़ ऐसे इन्तेज़ार कर रही थी मानो जादू के खेल में अभी टोपी से कबूतर निकलने वाला हो ।
खैर मंत्र खत्म होने के बाद बाबाजी ने आँखें खोली तो आस पास के लोग हाथ जोड़ बाबाजी के पैरों की तरफ झपट पड़े । सबको अपनी बात सुनाने की जल्दी थी और मुझे जल्दी थी अपनी नयी ड्रेस खरीद वापस घर जाने की । लेकिन शायद उस दिन मेरी किस्मत ने कुछ और ही सोच रखा था । बाबाजी ने सबको शांत करते हुए एलान किया कि “आज हनुमान जी यहाँ आकार स्वयं सबकी समास्याओं का हल करेंगे ।” यह सुन मैं थोड़ा रोमांचित हो गया “अरे वाह! हनुमान जी आने वाले हैं । लेकिन भीड़ से भरे इस कमरे में हनुमान जी बैठेंगे कहाँ?” मेरी बालबुद्धि अभी हनुमान जी को सम्मानपूर्वक बैठाने की जगह ढूंढ ही रही थी कि पापा ने जाने क्यूँ मेरा हाथ ऊपर उठा दिया । सारे लोग मुझे घूर कर देख रहे थे । “आ जाओ बेटा , आगे आ जाओ” बाबाजी ने हाथ का इशारा करते हुए हमें आगे बुलाया । मुझे गोद में लिए पापा भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए बाबाजी के पास पहुँच गए ।

बाबाजी के पास की जगह खाली करवाकर हमें ऐसे बैठाया गया जैसे स्कूल के ANNUAL FUNCTION में चीफ गेस्ट को स्टेज के सामने वाली पहली पंक्ति में बिठाते हैं । इन सबकी वजह मुझे तब समझ आई जब बाबाजी ने मुझे बोला “डरो नहीं… हनुमान जी बच्चों से बहुत प्यार करते हैं । इसीलिये बच्चों के दिमाग में विराजमान हो वो सब का कल्याण करते हैं ।” चारों तरफ नज़र दौडाने पर मुझे अपनी फूटी किस्मत पर विश्वास हो गया । इतनी भीड़ के बीच मुझे छोड़ कर एक भी बच्चा नहीं था । फिर क्या था, हाथ में थोड़े फूल पकड़ा बाबाजी ने मुझे आँख बंद करने को बोला । इस दौरान बाबाजी काफी देर तक मंत्र पढते रहे तो वहीं अगरबत्ती के धुंए से जलती आँखों को बीच बीच में मसलते हुए मैं फूल की पंखुड़ियों को कुरेदने में व्यस्त था । मंत्र खत्म होने के बाद बाबाजी ने पुछा “आँखें खोले बिना ध्यान से देख कर बताओ , हनुमान जी दिखे?” अब आँखें बंद कर कैसे देखते हैं ये मुझे समझ नहीं आया तो मैंने बोल दिया “नहीं दिखे” ।
लोगों में सुगबुगाहट चालू हो गयी । बाबाजी ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए बोला “बेटा इस बार ध्यान से देखना, हनुमान जी तुम्हारे दिमाग में आयेंगे” । फिर से वही मंत्र पढ़ने के बाद वही सवाल और मेरा भी वही जवाब “नहीं दिखे” । अब नहीं दिखे तो नहीं दिखे । इसमें मेरी क्या गलती? शायद हनुमान जी कहीं और BUSY होंगे । वैसे भी मुझे तो अपने ड्रेस ले जल्दी घर जाना था । हनुमान जी के नहीं आने से मुझे क्या फर्क पड़ता है । लेकिन… पापा को शायद फर्क पड़ा था । तभी जोर से चिल्लाकर वो बोले “ध्यान से क्यूँ नहीं देखता है?” पापा की डाँट सुन मैं डर गया । आँखें बंद किये थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहने के बाद मैंने बोल दिया “दिख गए हनुमान जी” ।

नैतिक शिक्षा का वो “कभी झूठ न बोलो” वाला पाठ डाँट या मार के डर से मैं अक्सर भुला देता था । खुद को भरोसा दिलाने के लिए मैंने दिमाग में टी.वी. सीरियल ‘जय वीर हनुमान’ वाले हनुमान जी की फोटो चिपका ली । बस फिर क्या था, लोग मेरे पैर छूने लग गए । मेरे माथे पर सिन्दूर का तिलक लगा मेरी आरती उतारी गयी । लोगों की समास्याओं के बारे में बाबाजी मुझसे कुछ-कुछ पूछते रहे और पापा की डाँट से बचने के लिए जो मुझे समझ आया मैं बोलता गया । थोड़ी देर तक चला ये सिलसिला हनुमान जी की आरती के साथ खत्म हो गया । सब बाबाजी और मेरे पैर छुकर जाने लगे । लोग अपनी समास्याओं का समाधान पा कर खुश थे तो वहीं पापा साक्षात् हनुमान जी के दर्शन करने वाले पुत्र को पाकर गर्वित थे । इन सब के बीच एक हाथ में बाबाजी की दी फल और मिठाई वाली थैली पकडे मुझे अभी भी अपनी नयी ड्रेस का इन्तेज़ार था ।
बचपन की यादो को बहुत खूबसूरती से शब्दों मई पिरोया गया है